भारतीय वास्तुकला, मूर्तिकला और मृदभांड का विकास एवं उद्गम।Development and origin of Indian architecture, sculpture and pottery
हड़प्पा सभ्यता की मूर्तियां:-Sculptures of Harappan Civilization
हड़प्पा सभ्यता की मूर्तियां वर्तमान त्रि-आयामी 3D कृत्रियों के सामान थी। यहां से अधिकतर मोहरे, कास्य मूर्तियां और मिट्टी के बर्तन (मृदभांड) प्राप्त हुए हैं।
मोहर:Seal
खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को सभी उत्खनन स्थलों से अलग-अलग आकार एवं अलग-अलग प्रकार के बहुत सी मोहरे साक्ष्य के रूप में प्राप्त हुई है।
मोहरों के प्रकार:-
अधिकतर मोहरे वर्गाकार तो वही त्रिकोणिय आयताकार और वृताकार प्रकार के मिली है। तथा सबसे अधिक मोहरे वर्गाकार प्रकार की मिली है इससे यह संज्ञान में आता है कि वर्गाकार मोहरों का प्रयोग निम्न कोटि व्यापार से लेकर उच्च कोटि व्यापार तक होता होगा। अगर हम वर्तमान परिदृश्य में भी देखें तो व्यापार में अधिकतर वर्गाकार मोरों का उपयोग मिलता है।
मोहर बनाने में प्रयोग पदार्थ:-
मोहर बनाने के लिए हड़प्पाई लोग नदी तल में पाए जाने वाले मुलायम पत्थर स्टेटाइट (सेलखड़ी) का सबसे अधिक उपयोग करते थे इसके अलावा अगेट, चर्ट, तांबा काचाम (फायस) और टेराकोटा पकी मिट्टी का प्रयोग करते थे तथा कुछ उत्खनन स्थलों पर सोने और हाथी दांत की मोहरो के भी साक्ष्य मिले हैं।मोहरों की लिपि:-
अधिकतर मोहरों पर चित्र रूपी अक्षर (पिक्टोग्राफिक स्क्रिप्ट) पाये गये है। जिसे आज तक पढ़ा भी नहीं जा सका है। यह लिपि दाऐं से वाऐं लिखी जाती थी।लेकिन कहीं-कहीं यह द्वि-दिशात्मक लेखन शैली के रूप में पाई गई है, अर्थात एक पंक्ति में दाएं से बाएं और दूसरी पंक्ति में वाऐं से दाऐं भी पाई गई है तथा इन पर पशुओं की आकृतियां (अधिकतर पांच पशु) भी मौजूद हैं जिन्हें सतह पर उत्कीर्णनित किया गया है सामान्यत कूवड़दार बेल, गधा, बाघ, हाथी, भैंस, बायसन, बकरी, मगरमच्छ आदि पशु का रूपांकन है। जहां तक खुदाई में मिले अवशेषों से स्पष्ट होता है कि अभी तक गाय का कोई साक्ष्य नहीं मिला है।
सामान्यत मोहरों पर एक ओर पशु या मानव की आकृतियां मुद्रित है और दूसरी और मुद्रालेख तथा कहीं-कहीं दोनों और मुद्रा लेख मौजूद है साथ ही कुछ मोहरों पर तीसरी तरफ भी मुद्रा लेख मौजूद है।
मोहरों का प्रयोग:-
मुख्य रूप से मोहरों का उपयोग व्यापार हेतु किया जाता होगा लेकिन यह संचार का मुख्य साधन भी होती होगी तथा एक छेद वाली मोहरे शवो के साथ पाई गई है इससे यह स्पष्ट पता चलता है कि इनका प्रयोग ताबीज के रूप में अपनी पहचान दर्शाने के लिए होता होगा। कहीं-कहीं कुछ मोहरों पर गणितीय आकृतियां मुद्रित है। संभवत: इनका उपयोग शैक्षणिक कौशल हेतु किया जाता होगा। तथा ‘स्वस्तिक’ चिन्ह वाली भी मोहर भी पायी गई है। इससे यह प्रतीत होता है की उन्हे दिशायों का ज्ञान भी था।
कास्य मूर्तियां
हड़प्पा सभ्यता में बड़े पैमाने पर कांसे की ढलाई के लिए प्रसिद्ध था। कांसे की मूर्तियों को बनाने में ‘लुप्त मोम तकनीक’ का प्रयोग करके बनाया जाता था।लुप्त मोम तकनीक:-
लुप्त मोम तकनीक में मोम की मूर्तियों पर गीली मिट्टी का लेप किया जाता था और उसको सुखाया जाता था इसके बाद मिट्टी से लेपित मूर्तियों को गर्म किया जाता था तथा गर्म होने पर मोम पिघलकर छोटे से छेद से बाहर निकल जाता था और मोम निकालने के बाद मिट्टी का एक खोखला बन जाता था तथा खोखला में पिघली हुई धातु को डाल दिया जाता था फिर धातु को ठंडा होने पर मिट्टी के लेप को हटा दिया जाता था और जैसी मोम की आकृति होती थी उसी आकार की आकृति कांसे से से तैयार हो जाती थी।
"वर्तमान में भी इसी तकनीक का उपयोग करके देश के कई हिस्सों में मूर्तियों की ढलाई होती है।"
नृत्य करती लड़की की मूर्ति:-
नृत्य करती हुई लड़की की मूर्ति विश्व की कांसे की सबसे पुरानी मूर्तियों में से एक है। मोहनजोदाडो में खुदाई के दौरान प्राप्त 4 इंच की इस मूर्ति में केवल आभूषण पहने हुए नग्न अवस्था में एक महिला को दर्शाया गया है। इसके बाएं हाथ में चूड़ियां तथा दाहिने हाथ में कंगन और ताबीज है। यह अपने कूल्हे दाहिने हाथ रखे हुए त्रिमंग नृत्य अवस्था में खड़ी है तथा इस मूर्ति की खोज ब्रिटिश पुरातत्वविद अनरेस्ट मैके ने 1926 में मोहनजोदाडो में की थी।टेराकोटा:-
टेराकोटा मूर्तियां बनाने के लिए पकी हुई मिट्टी का उपयोग किया जाता है टेराकोटा की मूर्तियां कांसे की मूर्तियों की तुलना में कम पाई गई है। इन्हें ‘पिंचिंग विधि’का उपयोग करके बनाया जाता था टेराकोटा की अधिकतर मूर्तियों को गुजरात के लोथल और कालीबंगा से पाया गया है।पिंचीग विधि क्या है?
पिंचिग विधि प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक उपयोग में लाई गई हाथ से मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियां बनाने की विधि है। इस विधि द्वारा मिट्टी को हाथ की उंगलियों का उपयोग करके बहुत कलात्मक ढंग से मिट्टी को मूर्तियों का रूप दिया जाता है जो बहुत सजावटी एवं सुंदर होती थी।टेराकोटा के कुछ उदाहरण
- मातृ देवी,
- सींगवाले देवता का मुखौटा,
- खिलौने आदि
मृदभांड:-
खुदाई के दौरान प्राप्त मृदभांड को उदाहरण के तौर पर दो भागों में विभाजित किया जाता है।- सादा मृदभांड
- चित्रित मृदभांड
चित्रित मृदभांड जिन्हें लाल व काले मृदभांड भी कहा जाता है क्योंकि इसमें पृष्ठभूमि को रंगने के लिए लाल रंग का प्रयोग होता है तथा चमक लाने के लिए काले रंग का प्रयोग होता है।
आभूषण:-
हड़प्पा सभ्यता के लोग आभूषण बनाने के लिए बहुमूल्य धातु एवं रतन से लेकर हड्डियों का उपयोग करते थे तथा उत्खनन के दौरान कुछ साक्ष्य में पकी हुई मिट्टी और अन्य सामग्री का उपयोग करके आभूषण बनाने में प्रयोग किया जाता था।
"पुरुष एवं महिलाएं दोनों ही आभूषण पहनते थे जैसे कंडहार, पट्टिका, बाजूबंद और अंगूठियां इत्यादि"
"करधनी, झुमके और पायल केवल महिलाएं ही पहनती थी।"
"कोहाट्स, स्टेटटाइट, नीलम, आदि के बने मनके काफी प्रसिद्ध थे, और बड़े पैमाने पर इनका निर्माण चंदहूदडो व लोथल में किया जाता था।"
हड़प्पा सभ्यता एवं सिंधु घाटी सभ्यता के लोग कपड़ों के लिए कपास एवं ऊन का उपयोग करते थे इन्हें बिना भेदभाव के अमीरों और गरीबों द्वारा समान रूप से काता जाता था।
हड़प्पा सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता के लोग फैशन के प्रति काभी सजग थे कुछ उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य से अनुमान लगाया गया है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग बाल एवं दाढ़ी की विभिन्न शैलियों का उपयोग करते थे।
भारतीय वास्तुकला, मूर्तिकला और मृदभांड का विकास एवं उद्गम Read English-CLICK HERE
सिंधु घाटी सभ्यता के लोगो द्वारा मोहरो के उपयोग से वर्तमान में हो रही मोहरों का उपयोग प्राचीन सभ्यता से बिल्कुल अलग नहीं है। मोहरे बाजार की पहचान है, पद की प्रतिष्ठा है, व्यापार का ब्रांड है, यही सब तो प्राचीन काल से होता आ रहा है और यह सब वर्तमान में हो रहा है हमने अपने अतीत से बहुत कुछ सीखा है और समझा है मूर्तियों के निर्माण से लेकर बर्तनों के निर्माण तक यहां तक की कपड़ों की बुनाई से लेकर आभूषणों के निर्माण तक। भारतीय वास्तु कला एवं मूर्ति कला को अनूठी मिसाल के तौर पर जन-जन ने देखा और समझा है। भारतीय वास्तुकला, मूर्तिकला, कला एवं संस्कृति भारतीय लोगों की प्राचीन धरोहर है। जिसे भारतीय लोग बखूबी सहेजे हुए प्राचीन परंपरा को आगे बड़ा रहे।
हड़प्पा सभ्यता के लोग आभूषण बनाने के लिए बहुमूल्य धातु एवं रतन से लेकर हड्डियों का उपयोग करते थे तथा उत्खनन के दौरान कुछ साक्ष्य में पकी हुई मिट्टी और अन्य सामग्री का उपयोग करके आभूषण बनाने में प्रयोग किया जाता था।
"पुरुष एवं महिलाएं दोनों ही आभूषण पहनते थे जैसे कंडहार, पट्टिका, बाजूबंद और अंगूठियां इत्यादि"
"करधनी, झुमके और पायल केवल महिलाएं ही पहनती थी।"
"कोहाट्स, स्टेटटाइट, नीलम, आदि के बने मनके काफी प्रसिद्ध थे, और बड़े पैमाने पर इनका निर्माण चंदहूदडो व लोथल में किया जाता था।"
हड़प्पा सभ्यता एवं सिंधु घाटी सभ्यता के लोग कपड़ों के लिए कपास एवं ऊन का उपयोग करते थे इन्हें बिना भेदभाव के अमीरों और गरीबों द्वारा समान रूप से काता जाता था।
हड़प्पा सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता के लोग फैशन के प्रति काभी सजग थे कुछ उत्खनन से प्राप्त साक्ष्य से अनुमान लगाया गया है कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग बाल एवं दाढ़ी की विभिन्न शैलियों का उपयोग करते थे।
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निष्कर्ष
सिंधु घाटी सभ्यता के लोगो द्वारा मोहरो के उपयोग से वर्तमान में हो रही मोहरों का उपयोग प्राचीन सभ्यता से बिल्कुल अलग नहीं है। मोहरे बाजार की पहचान है, पद की प्रतिष्ठा है, व्यापार का ब्रांड है, यही सब तो प्राचीन काल से होता आ रहा है और यह सब वर्तमान में हो रहा है हमने अपने अतीत से बहुत कुछ सीखा है और समझा है मूर्तियों के निर्माण से लेकर बर्तनों के निर्माण तक यहां तक की कपड़ों की बुनाई से लेकर आभूषणों के निर्माण तक। भारतीय वास्तु कला एवं मूर्ति कला को अनूठी मिसाल के तौर पर जन-जन ने देखा और समझा है। भारतीय वास्तुकला, मूर्तिकला, कला एवं संस्कृति भारतीय लोगों की प्राचीन धरोहर है। जिसे भारतीय लोग बखूबी सहेजे हुए प्राचीन परंपरा को आगे बड़ा रहे।